Tuesday 1 January 2013

विज्ञान कथा
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सुबह हो गई
मुर्गे की बांग सुनकर भोलू की नींद खुली। मौसम सुहाना था। अंगड़ाई लेते हुए वह उठा और घर से बाहर आया। अभी ठीक से उजाला नहीं हुआ था लेकिन गांव में चहल पहल शुरू हो गई थी।
मौसी अभी सोकर नहीं उठी थी। वह भोलू के पड़ोस में रहती थी। वह अकेली थी। न उससे मिलने कोई रिश्तेदार आते थे न वह कहीं आती जाती थी। बस गांव में ही जरूरत के हर मौके पर मौजूद रहती थी।
मौसी काफी बुजुर्ग हो गई थी और सारे गांव के लिए मौसी थी। भोलू के लिए तो वह मां जैसी थी। भोलू के माता पिता दोनों शिक्षक थे। वे सुबह काम पर निकल जाते थे। इसके बाद भोलू की देखरेख मौसी के जिम्मे थी। कभी जल्दी जल्दी में भोलू के घर खाना नहीं बन पाता तो उसका टिफिन भी मौसी दे देती थी।
भोलू अक्सर सुबह उठते ही मौसी के घर की ओर झांकता था। मौसी तब उठकर काम कर रही होती थी। उसका हालचाल पूछने के बाद ही वह दूसरे काम करता था।
आज पता नहीं क्या बात है कि मौसी अभी तक सो रही हैं, भोलू ने सोचा। फिर उसके दिमाग में आया कि कहीं उसकी तबीयत तो खराब नहीं है? उसने मौसी के दरवाजे पर जाकर टोह लेने की कोशिश की लेकिन कुछ समझ में नहीं आया।
उसने आवाज लगाई-मौसी..
भीतर से मौसी की आवाज आई- आती हूं बेटा।
मौसी ने घर का दरवाजा खोला। भोलू को देखकर मुस्कुराई। लेकिन उसका चेहरा कुछ उदास था। भोलू ने पूछा- क्या बात है मौसी? तबीयत ठीक नहीं है क्या?
मौसी ने अपनी उदासी छिपाते हुए कहा- नहीं बेटा। आज पता नहीं क्यों नींद ही देर से खुली।
भोलू ने गौर से देखा तो उसे लगा कि मौसी की आंखों में आंसू हैं। उसने मौसी से तो कुछ नहीं कहा लेकिन भीतर जाकर मां से कहा- लगता है मौसी की तबीयत ठीक नहीं है।
आज रविवार था। मां को स्कूल जाने की जल्दी नहीं थी। सो उसने गौर से भोलू की बात सुनी। फिर खुद ही मौसी से हालचाल पूछने उसके घर चली गई।
भीतर दोनों में पता नहीं क्या बात हुई। भोलू ने देखा कि मौसी के घर से आने के बाद मां कुछ परेशान और नाराज लग रही थीं। उसे कुछ समझ में नहीं आया। उसने मां से पूछा- मां क्या बात है? मौसी उदास क्यों हैं?
मां भोलू के सवालों को टालती नहीं थी। उनके जवाब देने की कोशिश करती थी। उसने कहा- बेटा, गांव के कुछ लोग मौसी को परेशान कर रहे हैं। मौसी अकेली रहती है इसलिए उसे डरा कर उसके मकान पर कब्जा करना चाहते हैं। वे मौसी के बारे में अफवाह फैला रहे हैं कि वह जादू टोना करती है और दूसरों का नुकसान करती है। उन लोगों ने मौसी को धमकी दी है कि उसे आग पर चलकर अपने निर्दोष होने का सबूत देना होगा।
भोलू को सुनकर धक्का लगा। इतनी अच्छी मौसी के बारे में इतनी बुरी बातें। अब क्या होगा?
उसने मां से पूछा। मां ने कहा- मैं ऐसा होने नहीं दूंगी। तुम्हारे पापा से इस बारे में बात करूंगी।
भोलू के पापा भी स्कूल में विज्ञान पढ़ाते थे। बच्चों को विज्ञान के प्रयोग करके दिखाते थे। बच्चे उन्हें इस वजह से बहुत पसंद करते थे।
इस समय वे नहा रहे थे। नहाकर निकले तो मां ने उनसे मौसी के बारे में बताया। भोलू के पापा ने कहा- चिंता की बात नहीं है। हम मौसी की रक्षा करेंगे। भोलू की मां मौसी को यह बात बताने गई। उसने मौसी से कहा-चिंता की बात नहीं है। हम लोग कुछ करेंगे।
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भोलू के पिता ने कहा- मैं जरा रायपुर होकर आता हूं। मेरे डॉक्टर दोस्त दिनेश मिश्रा वहां रहते हैं। वे अंध श्रद्धा निर्मूलन समिति नाम की संस्था चलाते हैं। जहां कुछ लोग चमत्कार दिखाकर लोगों को ठगते हैं वहां जाकर वे और उनके साथी चमत्कारों की पोल खोल देते हैं। जब किसी महिला पर जादू टोने का आरोप लगता है तो डाक्टर साहब वहां जाकर लोगों को समझाते हैं कि जादू टोना कुछ नहीं होता।  वे उन्हें यह जानकारी भी देते हैं कि किसी पर जादू टोने का आरोप लगाना कानून की नजर में अपराध है। इसके लिए सजा हो सकती है।  डाक्टर साहब को राज्य सरकार ने उनके इस काम के लिए पुरस्कार भी दिया है।
मां ने कहा- मैंने भी उनका नाम सुना है। अब जरूर कोई रास्ता निकलेगा। भोलू के पापा डाक्टर साहब से मिलने चले गए।
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शाम को वे लौटे। उन्होंने कहा-डाक्टर साहब खुद यहां आएंगे। उन्होंने मौसी की मदद करने का वादा किया है।
मां ने खुश होकर भोलू की ओर देखा। वह तो सबसे ज्यादा खुश था।
वे सब डाक्टर साहब का इंतजार करने लगे।
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दो दिन बाद, मुर्गे की बांग की जगह भोलू की नींद डमरू की आवाज से खुली। उसने सोचा बाहर कोई मदारी आया होगा। वह उठकर बाहर आया मगर जो देखा उससे डरकर भीतर आ गया। बाहर कुछ अजीब से लोगों की टोली गाते बजाते चली आ रही थी। वे लोग अपने बदन पर भभूत लगाए हुए थे। सर पर जटाएं थीं। दाढ़ी बढ़ी हुई थी। सब नंगे पांव थे। कुछ के पास शंख थे। कुछ के पास मंजीरे। वे सब अपनी धुन में मस्त दिख रहे थे।
गांव वाले उनकी वेशभूषा देखकर डरे हुए थे। लेकिन कुछ लोग उत्सुकता से उनके  पीछे पीछे चल रहे थे। इनमें बच्चे ज्यादा थे। इन्हें देखकर भोलू भी पीछे हो लिया। इस टोली ने गांव के बाजार के पास एक पेड़ के नीचे डेरा डाला। उनका संतों जैसा वेश देखा तो कुछ गांव वालों ने आकर उनके पांव छुए। टोली के मुखिया ने कमंडल से निकाल कर रंगीन पानी श्रद्धालुओं पर छिडक़ा। कुछ भक्तों को कपड़े खराब होने से बुरा भी लगा लेकिन वे चुप रहे। थोड़ी देर बाद रंग गायब हो गया। भक्त हैरान हो गए। वे टोली की जयजयकार करने लगे। जल्द ही यह खबर फैली और पूरा गांव वहां जमा हो गया। लोग उनके पांव छूने लगे। जल्द ही वहां दरियां बिछ गईं और लोग बाबाओं के साथ कीर्तन करने लगे।
मुख्य बाबा ने तब कहा- सूखी लकडिय़ां ले आओ। हमारे अनुष्ठान का समय हो गया।
गांव वाले आनन फानन सूखी लकडिय़ां लेकर आ गए। उन्हें एक जगह जमाकर मुख्य बाबा ने उस पर पानी के छींटे मारे तो लकडिय़ों से धुआं निकलने लगा। बाबा और उनके साथियों की जयजयकार होने लगी।
बाबा ने हाथ में दो रस्सियां लीं। कुछ मंत्र बुदबुदाए । रस्सियों का एक एक सिरा पकडक़र झटका दिया। लोग हैरान रह गए कि दोनों रस्सियां जुडक़र एक हो गईं। बाबा की फिर जयजयकार होने लगी।
बाबा ने आग को हथेली पर रखने और उसे मुंह में रखकर मुंह बंद करने जैसे चमत्कार भी दिखाए। लोग उनके मुरीद हो गए।
फिर तो बाबा का आशीर्वाद पाने की होड़ मच गई। यह सिलसिला थमा तो लोग अपनी समस्याएं बाबा को बताने लगे। बाबा ने बहुत सी समस्याओं का समाधान किया। आंखों से जुड़ी समस्याओं का तो उन्होंने बहुत आसानी से समाधान बताया। लोग उनका ज्ञान देखकर हैरान रह गए।
घंटे भर यह सब चलने के बाद बाबा ने कहा- मुझे लग रहा है कि गांव में कुछ गलत नीयत वाले लोग भी रहते हैं। मैं नींबू काटकर देखता हूं कि मेरा अनुमान सही है कि नहीं। नींबू से अगर खून निकला तो समझो ये लोग गांव में हैं। गांव वाले उत्सुकता से देखने लगे। बाबा ने झोले से एक नींबू निकाला, उसे चाकू से काटा तो खून जैसा लाल लाल रस निकलने लगा। बाबा ने आंखें बंद कीं और पूछा- यहां बिज्जू, रज्जू और कल्लू कौन हैं? तीनों भीड़ में ही खड़े थे। हालांकि वे गांव में सबको डराते धमकाते थे लेकिन बाबा का चमत्कार देखकर डरे हुए थे। उन्होंने आगे आकर कहा- हम हैं बिज्जू, रज्जू और कल्लू।
बाबा ने कहा- मेरी दिव्य दृष्टि कहती है कि तुम लोग किसी कमजोर को सता रहे हो। क्या यह सच है?
तीनों ने कहा- नहीं बाबा, ऐसा नहीं है।
तो क्या मैं झूठ बोल रहा हूं-बाबा गरजे।
तीनों के मुंह से बोल नहीं फूटे।
बाबा ने कहा- अगर तुम लोग निर्दोष हो तो तुम्हें आग पर चलकर इसका सबूत देना होगा। क्यों भई गांव वालों?
बाबा की मौजूदगी में गांव वालों में जोश आ गया था। उन्होंने एक साथ कहा-जरूर जरूर।
तीनों घबरा गए। फिर उनमें से एक ने कहा- हम लोग जरा अपने घर से आते हैं। बाबा का जवाब सुनने के पहले वे तीनों तेज कदमों से वहां से निकल भागे।
इसके बाद घंटे भर लोग उनका इंतजार करते रहे। वे नहीं लौटे।
बाबा ने कहा- कोई बात नहीं। अगर इन्होंने कमजोर को सताना जारी रखा तो मुझे पता चल जाएगा और मैं अगले हफ्ते फिर आऊंगा। तब ये कहीं भाग नहीं सकेंगे।
बाबा की जयजयकार के नारे गूंजने लगे। बाबा ने कहा- अब हम प्रस्थान करेंगे।
बाबाओं की टोली गांव से गाते बजाते रवाना हुई।
मौसी की समस्या हल हो चुकी थी।
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रात में खाने के समय भोलू ने पापा से पूछा- डा. दिनेश मिश्रा कब आएंगे?
पापा मां की तरफ देखकर मुस्कुराए फिर भोलू से कहा- बाबाओं की टोली के मुखिया डाक्टर साहब ही थे। वे सब वेश बदलकर आए थे। मैंने उन्हें पहचान लिया। यह सारा ड्रामा उन्होंने बदमाशों को डराने और मौसी को बचाने के लिए किया। डाक्टर साहब ने मुझसे फोन पर कहा है कि अभी उनका मकसद मौसी को बचाना था। वह तो हो गया। समय और मौका देखकर वे गांव वालों को चमत्कारों की हकीकत भी बता देंगे और यह भी बता देंगे कि टोना टोटका कुछ नहीं होता। अगर बेचारी मौसी में चमत्कारी शक्तियां होतीं तो वे बदमाशों को सबक सिखा सकती थीं। लेकिन वे तो मामूली इंसान हैं। इसीलिए बदमाश उन्हें सता रहे हैं। डाक्टर साहब ने यह भी कहा है कि बदमाश न माने तो वे पुलिस की भी मदद लेंगे।
भोलू हैरान रह गया। उसने मन ही मन कहा- डाक्टर साहब तो हीरो हैं।
पापा ने कहा- डाक्टर साहब ने बाबा के रूप में जितने चमत्कार दिखाए वे विज्ञान के मामूली खेल हैं। ये खेल मैं तुम्हें भी सिखा दूंगा।
भोलू खुश हो गया। पापा ने उसे बताया कि सोडियम के टुकड़े पर पानी डालने से धुआं उठने लगता है। सोडा लगे हुए चाकू से नींबू काटने पर उसका रस लाल हो जाता है। पापा ने उसे हाथ की सफाई वाले जादू भी सिखाए जिनमें रस्सियों को गांठ लगाए बगैर जोडऩे का जादू शामिल था। उन्होंने वादा किया कि शहर में लगने वाले मेले से वे उसे जादू दिखाने का किट ला देंगे। भोलू उसकी मदद से अपने साथियों को ढेर सारे खेल दिखा सकेगा।
भोलू ने स्कूल में कुछ चमत्कार करके दिखाए और दोस्तों को उनकी हकीकत भी बताई। दोस्तों को पता चल गया कि विज्ञान की पढ़ाई करने के क्या फायदे हैं।
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कुछ रोज ऐसे ही बीते। मौसी रोज सुबह उठती। उसके चेहरे पर उदासी नहीं होती। उसकी दिनचर्या पहले जैसी चलने लगी। भोलू ने एक रोज मां से पूछा तो उन्होंने बताया कि मौसी को अब कोई नहीं सता रहा है। बदमाशों को पता चल गया है कि मौसी को बचाने के लिए बाबाओं की पूरी टोली मौजूद है।
एक सुबह भोलू उठकर मौसी के घर गया। उसने मौसी से पूछा- क्यों मौसी, सुबह हो गई?
मौसी ने मुस्कुराते हुए कहा- गांव में वाकई सुबह हो गई।


- निकष परमार



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Wednesday 27 June 2012

महरूमियों में कैफ सा पाने लगा हूं मैं? ----------------------------



ये पिछले महीने भर से बाहर गयी है। औरंगाबाद में बुजुर्ग फूफाजी का निधन हो गया। भैया के साथ चली गयी। शादी के बाद बारह साल में पहली बार अपने रिश्तेदारों से उनके घर में मिलना हुआ। नासिक और पुणे में भी बहुत से संबंधी रहते हैं। यह वहीं रुक गयी। नासिक होते हुए अभी पुणे में है। अभी कुछ दिन और रहने का प्रोग्राम है। बीच में सहेली के पास मुंंबई जाने का भी प्लान था। पता नहीं जाएगी कि नहीं। आज सासूजी से बात हुई। उनका कहना है कि बारिश में लौटना मुश्किल हो जाएगा। अभी पानी रुका है इसलिए मैंने अभी लौट आने की सलाह दी है। अपने एक फुफेरे भाई के यहां कुछ दिन रहकर शायद लौट आए।

इसके जाने से आजादी तो मिली है लेकिन पता है कि यह चांदनी चार दिनों की है। ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है। इस बीच काफी सारा काम कर सकता था। लेकिन हम तो ऐसे हैं भइया।

ज्यादातर समय खाना बनाने, खाने, टीवी देखने और सोने में गुजर रहा है। काम बोले तो एक भी नहीं हुआ। टेबल सुधरवा सकता था। कूलर साफ कर सकता था। सेजबहार में अपने घर को ठीक ठाक कर सकता था। मैगजीन निकालने की पहल कर सकता था।

पता नहीं अब कुछ करने की शायद हिम्मत नहीं हो रही। लगता है अब हाथ पांव मारने का कोई मतलब नहीं है।

चुपचाप नौकरी करते करते मर जाओ, जैसा कि ज्यादातर शुभचिंतक सलाह देते हैं।

लेकिन यह भी लग रहा है कि अब जो करूंगा, अधिक ठोस रूप में करूंगा। दफ्तर और घर की  लादी हुई जिम्मेदारियों को ढोते हुए अपना काम करूंगा तो अधिक स्थायी रहेगा। क्योंकि दफ्तर न सही, घर की जिम्मेदारियां तो कहीं जाने वाली नहीं हैं।

Saturday 16 June 2012

फादर्स डे


16 जून, 2012
कल फादर्स डे है।
आज दफ्तर में एक प्रेजेंटेशन दिखाया गया। इसमें एक बाप बेटे की कहानी थी। दोनों घर के  बगीचे में बैठे थे। बुजुर्ग पिता ने पूछा-वो क्या है? अखबार पढ़ रहे जवान बेटे ने देखा और बताया- वो एक चिडिय़ा है। थोड़ी देर बाद पिता ने फिर पूछा- वो क्या है। बेटे ने कहा- बताया तो कि वो एक चिडिय़ा है। तीसरी बार पिता ने फिर पूछा तो बेटा नाराज हो गया। उसने पिता को डांटा कि वे बार बार यही सवाल क्यों कर रहे हैं। पिता उठकर भीतर गए और एक पुरानी डायरी उठा लाए। कोई पन्ना खोलकर उसे बेटे को पढऩे दिया। बेटे ने पढ़ा, उसमें लिखा था- आज मेरा बेटा तीन साल का हो गया। आज उसने एक चिडिय़ा को देखकर मुझसे पूछा- वो क्या है। मैंने उसे बताया कि वह एक चिडिय़ा है। उसने यही सवाल मुझसे 21 बार पूछा। हर बार मैंने उसे बताया कि वह एक चिडिय़ा है। बगैर नाराज हुए, क्योंकि मैं उससे प्यार करता हूं।
बेटे की आंखें खुल गयीं। उसने पिता को गले लगा लिया।
कहानी मर्मस्पर्शी थी। संपादक ने संकल्प दिलाया कि सब घर जाकर माता पिता का आशीर्वाद लेंगे और उन्हें प्यार से गले लगाएंगे।  फादर्स डे के पहले की यह शाम सार्थक हो गयी।
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पापाजी को मैं अक्सर याद करता रहता हूं। लंबे समय तक हम लोग उनके प्रभाव में रहे। उनकी ही बनाई गुडविल की छत्रछाया में जीते रहे। पापाजी के जीवन में पैसे की कमी हमेशा रही। लेकिन हम लोगों को उसका अहसास बहुत कम हुआ। हम लोगों को जो चीजें हासिल थीं वे पैसे से नहीं खरीदी जा सकती थीं।
कवि होने के कारण वे लगातार एक कल्पना की दुनिया में रहते थे। मगर घर की जिम्मेदारियां भी वे भूलते नहीं थे।
उनसे जुड़ी मेरी सबसे पुरानी याद यह है कि वे कॉलेज के किसी कार्यक्रम के बाद मुझे गोद में लेकर, एक हाथ से साइकिल थामे लौट रहे थे। मैं उनके कंधों पर सिर रखकर ऊंघ रहा था।
मुझे वे शाम को अपने साथ घुमाने ले जाते थे। पुराने बस स्टैंड का वो माहौल मेरे बचपन की यादों का एक जरूरी हिस्सा है। वहां एक होटल थी जिसका नाम कॉफी हाउस था। वहां पहली बार मैंने दोसा खाया। उसका स्वाद इतना पसंद आया कि बता नहीं सकता। पापाजी की मित्र मंडली को भी शायद पता था कि मुझे यह पसंद है। मेरा खयाल है इतना पसंद होने के बाद भी मैं पूछने पर पहले ना नुकुर करता था। यह आदत बहुत दिनों तक रही। शायद तब तक, जब तक पापाजी रहे।
बचपन में एक बार मेरे पांव में कोई जख्म पक गया था और उसमें टीस उठ रही थी। पापाजी ने उसे साफ कर ड्रेसिंग कर दी थी। मेरी आंख के इलाज के लिए वे लंबे समय तक मुझे बस से रायपुर ले जाते रहे। कुछ दिन मैं डीके अस्पताल में दाखिल रहा। फिर बूढ़ापारा में डा. जनस्वामी के नर्सिंग होम में मेरी आंख के दो ऑपरेशन हुए। वहां सुबह पापाजी मेरे लिए चौक से नाश्ता लेकर आते थे।ं उनके मित्र बसंत दीवान को पता चला तो वे दोपहर को खाना लेकर आने लगे। ममेरी बुआ भी शायद खाना लेकर पहुंची थीं। डाक्टर साहब भी पापाजी के परिचित थे। मैं वहां कितनी सुरक्षा और कितनी सुविधा के बीच रहा।
पीईटी दिलाने के लिए मैं पापाजी के साथ कुछ रोज रायपुर के गॉस मेमोरियल सेंटर में ठहरा। यहीं मैंने पहली बार बटर स्लाइस नाम की चीज खाई और शायद पहली बार मक्खन का स्वाद जाना।
पॉलीटेक्निक में एडमिशन के लिए भी शायद पापाजी के साथ ही गया था।
मैं गणित नहीं पढऩा चाहता था। पापाजी के दबाव में मुझे यह विषय लेना पड़ा। पॉलिटेक्निक की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाया। इसके बाद मेरा एडमिशन बीएससी गणित में करवा दिया गया। वहां भी कुछ रोज जाकर मैंने क्लास अटेंड करना बंद कर दिया। अपनी असफलताओं के चलते पापाजी समेत मेरी घर के ज्यादातर सदस्यों से बात बंद हो गयी। कुछ रोज मैं आम बेरोजगारों की तरह भटकता रहा। फिर एक स्थानीय प्रेस में काम करना शुरू किया। पापाजी अपने मित्रों से मुझे समझाने को कहते थे। यह उनके मित्रों की बातों से पता चलता था। लेकिन मैं किसी गलत राह पर जा नहीं रहा था। इसलिए किसी की बात सुनने को तैयार नहीं था। कुछ अरसा इसी तरह गुजरा। परिचितों के बीच आम धारणा थी कि मुझे लेकर पापाजी बहुत परेशान हैं।
बाद के दिनों में, जब मैं रायपुर में काम करने लगा और शायद मेरे काम की तारीफ भी घर तक पहुंचने लगी तो पापाजी को अच्छा लगने लगा। फिर मैं रायपुर में उनका एक संपर्क सूत्र बन गया। लगभग हर साप्ताहिक छुट्टी में मैं अखबार के बंडल पहुंचाने वाली गाड़ी से घर जाता था। वे अपने मित्रों का हालचाल पूछते थे। हालांकि उनमें से शायद ही किसी से मेरी मुलाकात होती थी। मेरा काम डेस्क का था। और वैसे भी एक मशहूर बाप के नालायक बच्चे के रूप में किसी से मिलने में मेरी दिलचस्पी नहीं थी। फिर भी कुछ न कुछ ऐसा मेरे पास होता था जिसे सुनकर उन्हें आनंद आता था।
फिर वह समय भी आया जब पापाजी बिस्तर पर पड़ गए। मां, छोटे भाई और घर से दूसरे सदस्यों ने उनकी खूब सेवा की। मैं साप्ताहिक छुट्टी में घर जाता था और  अपना रिकार्ड दुरुस्त करने के लायक उनका मनोरंजन व थोड़ी बहुत सेवा करता था।
एक बार साप्ताहिक छुट्टी में मैं घर नहीं जा पाया। दूसरे दिन रात में दफ्तर में काम के दौरान पापाजी का फोन आया। उन्होंने बहुत याचक भाव से कहा- यार तुम आए नहीं? बहुत बोरियत लगती है। यह सुनकर मेरा दिमाग झनझना गया। जिन पापाजी को हम सिर्फ देने वाले के रूप मेें जानते थे वे कितने असहाय और जरूरतमंद हो गए हैं। मैं उसी रात टैक्सी से धमतरी गया।
शुगर के कारण उन्हें कई बार अस्पताल दाखिल करना पड़ा। एक बार रात में खबर मिलने पर मैं अखबार वाली गाड़ी से धमतरी गया। बस स्टैंड के सामने ही अस्पताल था। मैं सीधे वहीं गया। सुबह के पांच छह बजे होंगे। वे जाग रहे थे। मुझे देखकर बोले-हमारे कारण तुम लोगों को कितनी परेशानी होती है।
मां उनकी बहुत सेवा करती थी। स्कूल की ड्यूटी के साथ साथ उनकी सेवा करना आसान नहीं था। बड़ी बहन ने एक बार बताया कि मां की सेवाओं के लिए वे बहुत कृतज्ञता अनुभव करते हैं। अस्पताल में एक बार उन्होंने कहा था कि तुम्हारी मां के एहसानों का कर्ज मैं सात जनम में नहीं उतार पाऊंगा। मुझसे उन्होंने एक बार कहा था- अपनी मां को कभी दुख मत देना। अपनी मां को भी वे बहुत मानते थे। उनके जाने के समय मैंने पहली बार उनकी आंखों में नमी देखी थी।
दादी के गुजरने के बाद बुआ ने मोर्चा संभाल लिया था। बच्चों के लिए फरमान हो गया था कि मुंडन करवाना पड़ेगा। काका के बड़े बेटे का मुंडन हो चुका था। बुआ छोटे के पीछे पड़ी थी। वह मुंडन नहीं करवाना चाहता था। पापाजी ने उसका साथ दिया। बुआ से कह दिया कि बच्चा नहीं चाहता तो क्यों पीछे पड़ी हो।
रीति रिवाजों का वे सम्मान करते थे लेकिन उन्हें सिर पर चढ़ा लेना या हौवा बना देना उन्हें पसंद नहीं था। सिद्धांतत: वे हर इंसान की आजादी का सम्मान करते थे। उसके विवेक का आदर करते थे।
उनसे विरासत में मुझे भाषा मिली। अपनी रोटी खुद कमाने का जज्बा मिला। बेटों को लेकर उन्होंने कोई बड़े सपने नहीं देखे थे। ग्रैजुएट होकर कहीं क्लर्क बन जाओगे तो जिंदगी कट जाएगी, यह उनकी सोच थी। बेटियों को लेकर वे जरूर संवेदनशील थे। वे उन्हें आत्मनिर्भर देखना चाहते थे। वे गर्मी की छुट्टियों में हमें टाइपिंग सीखने भेज देते थे।
उनके फैसलों को लेकर मेरे मन में बहुत मलाल नहीं है। उन्होंने अपने विवेक से अच्छा ही सोचा होगा।
उनसे मुझे विरासत में फक्कड़पन भी मिला। लेकिन फक्कड़पन के साथ सिर उठाकर जीने के लिए जरूरी है कि आप इंसान को पैसे से तोलने वालों के सामने मजबूती से खड़े रह सकें। वह मजबूती मैं पा नहीं सका।

Thursday 14 June 2012

अच्छे काम की कदर तो है



आज एक प्रतिभाशाली बच्ची की स्टोरी आयी. मैंने कुछ हेडिंग्स बनायीं। उन्हें अपने पास ही रख लिया क्योंकि किसी ने मुझे हेडिंग बनाने के लिए कहा नहीं था और न ही स्टोरी एडिटिंग के लिए मेरे पास आयी थी।

आधे घंटे बाद, वह स्टोरी पेज पर लगी। दो दो न्यूज़ एडिटर उसे लगाने में भिड़े थे। एक न्यूज़ एडिटर ने दूसरे से पूछा- हेडिंग क्या होनी चाहिए। उसने मुझसे भी पूछा- जो लगी है वह हेडिंग कैसी है। मैंने अपनी बनायीं हेडिंग वाला कागज़ उसे दे दिया। दोनो एक हेडिंग पर सहमत हुए।

इस बीच वैल्यू हेड अपनी हेडिंग ले के आ गये। उनकी वरिष्ठता को देखकर न्यूज़ एडिटरों ने उनकी हेडिंग लगा ली. हालाँकि यह साफ़ लग रहा था कि उन्हें हेडिंग पसंद नहीं आ रही थी.

 एक न्यूज़ एडिटर ने बोल ही दिया कि  पिछली हेडिंग भी ठीक लग रही थी। उसने फिर मुझसे भी पूछा और साथी न्यूज़ एडिटर से भी। उसने जाहिर कर दिया कि उसे मेरी हेडिंग पसंद आई।

अंततः मेरी हेडिंग लगाई गई ।

ऐसा तब हुआ जब न्यूज़ एडिटरों से मेरे सम्बन्ध बहुत अच्छे नहीं हैं।

अच्छे काम की कदर तो है।

Tuesday 29 May 2012

शहर में घोटाले, आउटर में प्रेम




बुनियादी जरूरतों को लेकर लोगों को कहाँ कहाँ भटकना पड़ता है. और कैसे कैसे हादसे उनके साथ होते हैं. एक लड़का लड़की रात को एक सुनसान इलाके में चले गए. उन पर इन्सान की शक्ल वाले भेड़ियों ने हमला कर दिया. ये वारदात तो सामने आ गयी. आसपास के लोग जानते हैं कि यहाँ ऐसा होता ही रहता है. पता नहीं कब तक होता रहेगा. ये कैसी अंधेर नगरी है. यहाँ घोटाले तो शहर में होते हैं, प्रेम आउटर में होता है. यहाँ बेईमानों  को पद दिए जाते हैं. और प्रेम करने वालों को साल के एक दिन डंडे मारे जाते हैं. 

ऐसा नहीं कि ये सब सूने इलाकों में होता है. घरों में, दफ्तर में, स्कूल कालेज में बगैर डंडे के ये सब होता रहता है. नौकरी का लालच देकर या नौकरी से निकालने की धमकी देकर कर्मचारियों के आत्मसम्मान से लेकर शील पर हमले होते रहते हैं. घरों में रिश्ते नातों के जंगल में, मजबूर बच्चों और औरतों के साथ क्या नहीं होता. शहरी भेड़ियों को खुश नहीं होना चाहिए कि उन्हें कोई नहीं देख रहा है. 

एक ही जरूरत कितने अलग अलग तरह से पूरी होती है. एक आदमी घर में प्यार से खाना खाता है.एक आदमी दूसरे के घर में भी प्रेम से खाना खाता है. एक होटल में आर्डर देकर खाता है. एक सड़क पर मांग कर खाता है. कुछ ठग कर और कुछ लूट कर खाते हैं. ऐसा ही दूसरी जरूरतों के बारे में भी है. ये समाज की गैर बराबरी है जो दूर होती नहीं दिखती. इस गैर बराबरी का जिन्हें फायदा मिल रहा है वे क्यों इसे दूर करने लगे. 

ये समाज के पाखंड का भी नतीजा है कि बच्चे शहर छोड़कर आउटर की राह पकड़ रहे हैं. समाज को प्रेम को मान्यता देनी चाहिए. कुछ दोस्तों का सुझाव है कि देश के कुछ महानगरों की तरह यहाँ भी प्रेमियों के लिए सेफ ज़ोन बनाने चाहिए. जोन तो प्रेमियों ने बना लिए हैं, उन्हें सेफ करने की ज़रुरत है. 

एक बात और. प्रेम शब्द को मीडिया ने बहुत सस्ता बना दिया है.  मुझे हर मामले में प्रेम शब्द का इस्तेमाल नहीं जंचता. नशेडी, हत्यारे, अय्याश सबके लिए प्रेमी शब्द का इस्तेमाल किया जाता है. अगली पट गयी है या माल को लेकर जाऊंगा जैसी भाषा में बात करने वाले के लिए भी प्रेम और प्रेमी  शब्द का इस्तेमाल किया जाता है. प्रेम न हुआ  राज्य  सरकार का साहित्य पुरस्कार हो गया.

एक बात और. ये हर बच्चे को देखना चाहिए कि वह कहाँ सेफ है और कहाँ खतरे में. प्रेम करने जा रहे हो, इतनी अकल है. थोड़ी अकल इधर भी लगा लो. प्रेम अँधा होता है, दुनिया अंधी नहीं होती. लोग तो देखते रहते हैं कि आप कहाँ जा रहे हो, क्यों जा रहे हो. सुनसान में जाने वालों को इतना अहसास तो हो जाता है कि ये जगह सेफ नहीं है. उसके बाद प्राथमिकता तय करना आपका काम है. बहुत से इलाकों के बारे में कम से कम पुरुष साथी को पता होता है कि वह बदनाम और असुरक्षित इलाका है. यह उसकी ग़लती है कि वह उसके बाद भी वहां जाने का फैसला करता है. 

माँ बाप को भी बच्चों की गतिविधियों से पता तो चल जाता है कि वे बड़े हो रहे हैं. उन्हें रोकने टोकने के बजाय सुरक्षित रहना सिखाना चाहिए.

भेड़ियों से ये उम्मीद बेमानी है कि वे घास खाकर गुज़ारा कर लेंगे. 
ये तो मेमनों को समझना होगा ·कि उधर खतरा है. 

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Saturday 19 May 2012

उषा




उषा हमारे घर काम करती है. मुझे लगता है वह हमारे घर की सदस्य है. बल्कि हमारे घर की ज़रुरत है. उसके आने से घर का अकेलापन दूर होता है. खासकर पत्नी का. उषा उम्र में उससे बहुत छोटी है लेकिन उसकी सहेली जैसी है. एक  बार दोना साथ साथ मौल घूमने भी जा चुके हैं. आपस में बहुत सी बातें शेयर करते रहते हैं. 

उषा बहुत सुंदर है. ऐसा पत्नी कई बार कह चुकी है. हम लोगों ने उसकी फोटो भी खींची है. 

उषा को लेकर मन में कई तरह के विचार आते हैं. इतनी सुंदर लड़की को देखकर ये तो लगेगा ही के काश ये मेरी दोस्त होती. उषा के आने से लगता है के अपने बच्चे की  कमी दूर हो गयी. हमारी सही उम्र में शादी हो गयी होती तो बेटी इतनी बड़ी होती. उषा के आने से मुझे लगता है के मुझे समझने वाला कोई आ गया है. वह इसी धरती की बेटी है. छत्तीसगढ़ के लोग आमतौर पर मानवीय होते हैं. वे काम न करने वालों से बहुत बेदर्दी से पेश नहीं आते. हालाँकि छत्तीसगढ़ की महिलाओं को लेकर मैं किसी ग़लतफ़हमी में नहीं हूँ. सब्जी बाजार में उनका दुर्गा चंडी वाला रूप दिखता है. पर उषा नर्म दिल लड़की है. उसके आने से मुझे एक अंदरूनी सहारा मिलता है. एक नैतिक समर्थन मिलता है. 

उषा के आने का समय होता है और मुझे असमय उठाये जाने का समय होता है. मैं रात की ड्यूटी से लौटकर खाना खाता हूँ, टीवी देखता हूँ फिर सोता हूँ. सुबह अधूरी नींद में उठना पड़ता है. डांट खाते खाते कुछ कुछ काम करता हूँ या डांट खाकर भी नहीं करता. वह मुझे आलसी समझती होगी. हालाँकि मैं हूँ भी आलसी. पर कोई ऐसा समझे तो फिर भी बुरा लगता है. 

उषा के घर में वह है और उसकी माँ है. बीच में उसे देखने लड़के वाले आये थे. पहले सुना के रिश्ता पक्का हो गया. फिर पता चला के इन लोगों ने ही रिश्ता तोड़ दिया. लड़का शराब पीता था. उषा ने बताया के इसके बाद लड़का उसकी माँ को रिश्ता न तोड़ने के लिए धमका रहा है. अब उस बारे में बात नहीं होती. 

कभी कभी मै घर में अकेले होता हूँ जब उषा आती है. सहमी सी रहती है. चुपचाप काम करके निकल जाती है. मैं कभी कभी घर से बाहर निकलकर बैठ जाता हूँ. भीतर रहता हूँ तो दोनों असहज हो जाते हैं. 

मुझे उसका झाड़ू पोछा करना अच्छा नहीं लगता. हालांकि मैं भी तो नौकरी करता हूँ. मुझे भी कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ता है. मेरी माँ ने भी तो जीवन भर नौकरी की. मेरी बहने भी तो टीचर के रूप में काम करती हैं. चलो उषा भी काम करती है तो क्या बुरा है.  ईश्वर करे हमसे उसके साथ कोई ज्यादती न हो. 

कभी कभी मुझे लगता है के उस पर काम ज्यादा हो गया है. तब मुझे अच्छा नहीं लगता. वह हमारे अलावा नीचे रहने वाले मकान मालिक  के घर भी काम करती है और मोहल्ले के दो और घरों में भी. नन्ही सी जान और इतना काम. 

उसने दो महीने पहले मकान मालिक से पुरानी साइकिल खरीदी है. मुझे यह बहुत अच्छा लगा. उषा शौकीन है. पत्नी ने बताया के उसके पास एक दो महंगे सूट हैं. उसने शायद पार्लर से भवे भी बनवा रखी हैं. कलाइयों में चूड़ियाँ और पावों में पायल तो खैर वह पहनती ही है. मैंने नज़रें बचाकर देखा है के वह बिंदी भी लम्बी सी लगाती है और उसकी हेयर स्टाइल बदलती रहती है. 

उषा इतनी सुंदर है. युवा है. अकेली है. क्या उसका कोई दोस्त नहीं होगा?

अभी तक तो इसके बारे में सुना नहीं. पत्नी को कुछ पता होता तो वह ज़रूर बताती. 

मेरी ईर्ष्या कहती है के मत ही हो कोई लड़का उसका दोस्त. 

लेकिन बड़े होने का तकाजा है के मैं उसके लिए एक बहुत अच्छे जीवन साथी की कामना करूं. भगवान शिव उसकी मनोकामना पूरी करें. 

Friday 18 May 2012

रामचरण निर्मलकर



रामचरण निर्मलकर नहीं रहे। पिछले बुधवार को उनका निधन हो गया। छत्तीसगढ़ में उन्हें जानने वालों की कमी नहीं थी। लेकिन ज्यादातर लोगों को पता ही नहीं कि उनके पास क्या था जो उन्होंने खो दिया।

तीन दशक तक छत्तीसगढ़ में नाचा किया। तीन दशक तक हबीब तनवीर के साथ देश-विदेश में नाटक खेले। जीवन के आखिरी दिन उसी गरीबी में, उसी सरलता, सहजता से गुजारे।

उनसे मिलने दो तीन बार उनके घर गया था। इतने बरस दुनिया घूमने के बाद भी उनकी भाषा जस की तस थी। कोई उनसे बात करके पता नहीं लगा सकता था कि ये आदमी इतने साल न सिर्फ दिल्ली -मुंबई बल्कि विदेशों में भी जाता रहा है। 
सिर्फ भाषा नहीं, उनकी सहजता और सरलता पर भी बाहर का कोई असर नहीं दिखता था।

उनका साक्षात्कार लेते हुए मैंने पूछा कि शुरुआती दिनों में नाचा पार्टी में कैसे नाटक खेलते थे। वे एक नाटक की कहानी बताने लगे। बताते बतातें उनकी आंखों में आंसू आ गए। ऐसे संवेदनशील इंसान थे। अब कौन किसे कहानियां सुनाता है? और कहानियां सुनाते सुनाते कितनी आंखें गीली हो जाती हैं?

उनमें गजब का आत्मविश्वास था। इतने साल बाहर रहने से आदमी में गजब का आत्मविश्वास आ ही जाना चाहिए। लेकिन निर्मलकर जी के आत्मविश्वास को देखकर कहीं से नहीं लगता था कि यह दुनिया घूमकर कमाया गया है। लगता था कि यह छत्तीसगढ़ में ही रहकर, छत्तीस साल तक नाचा में काम करके कमाया गया आत्मविश्वास है। दुनिया को तो वे कुछ देने गए थे।

वे एक दुर्लभ छत्तीसगढिय़ा थे।

धमतरी से आते वक्त मैं जहां कहीं भीड़ देखता हूं समझ जाता हूं कि यह दारू का ठेका होगा और आसपास मछली अंडे की दुकानें होंगी। अगर कहीं लाइब्रेरी जैसी कोई जगह होगी भी तो पता नहीं चलता। निर्मलकर जी भी ऐसी ही लाइब्रेरी थे। बहुतों को उनका पता ही नहीं चला। जिन्हें पता था उन्होंने भी उनका कोई फायदा नहीं उठाया।

उन्होंने एक अद्भुत जीवन जिया। कौन सोच सकता है कि बरोंडा के एक बुजुर्ग के पास लंदन में खींची गई अपनी तस्वीर होगी जो वहां के एक टेबलाइड में शायद फ्रंट पेज पर फुल पेज छपी थी। शशिकपूर केसाथ उनकी तस्वीर थी। संजना कपूर के साथ भी। शेखर कपूर के साथ भी। हबीब तनवीर के साथ भी और नाटक खेलते समय की तो दर्जनों तस्वीरें थीं।

जितना बैलगाड़ी नहीं चढ़ा, उससे ज्यादा हवाई जहाज में चढ़ा हूं, यह बताते समय कहीं से तो उनकी आवाज में घमंड की झलक मिलती। वे यह बात चुटकी लेते हुए बताते थे। फिल्म और रंगकर्म के कई महारथियों के साथ मुलाकातों के उनके पास असंख्य किस्से थे। कुछ लोगों से उनकी सीमित मुलाकातें हुईं। खोदकर कुछ निकालने की कोशिश की तो बहुत सहजता से उन्होंने कह दिया कि उनसे बहुत ज्यादा मिलना नहीं हुआ।

छत्तीसगढ़ के प्रति मेरे मन में बचपन से प्रेम भी है और गौरव भी। रामचरण जी से मिलने के बाद यह हजार गुना हो गया है।

उन्हें पुन: मेरी विनम्र श्रद्धांजली।